कितनी बार हुआ कि मेरी कलाइयाँ यूँ ही रह गयी सूनी,
कितनी बार हुआ है ऐसा कि पहुँच न पाया मैं राखी पर!
पैसा-पैसा करते करते रिश्तों को नज़रन्दाज़ किया मैंने,
याद आये सारे रिश्ते जब पीसने लगा वक़्त की चाकी पर!
धनवान चाह में मैंने धन को अपना सब कुछ मान लिया,
धन चला न जाए मेरे हाथों से ये सोचकर डर-डर मैं जिया!
धन-लोभ ये ऐसा पाश है जो जकड़े तो छोड़े कभी न बंधू,
न बच पाया तो इस माया से तो क्या भरोसा करे तू बाकी पर!
सोचा धन साथ रहेगा अपना बनकर और पराये हैं सारे अपने,
छल होता था होता रहेगा धन लोभ में, टूट जाते हैं सारे सपने!
धन की आकांक्षा लिए चला जा रहा हूँ अपनी चिता पर जलने,
अब कैसे गर्व करूं महसूस धन संचय के प्रपंच-चालाकी पर!