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कान के कच्चे.....!!!!!

By Dr Himanshu Sharma in Stories » Fiction
Updated 14:06 IST Sep 17, 2016

Views » 1609 | 4 min read

गणेशोत्सव नज़दीक था, हमने सोचा कि चंदा इकट्ठा कर लिया जाए और सोचा कि शुरूआत की जाए बैंक के एक उच्चाधिकारी से! उनका हमारी कॉलोनी में बड़ा रुतबा था परंतु लोग कहते थे कि बन्दा कान का बड़ा कच्चा है! फिर भी लोगों की बात को नज़रअंदाज़ करके हम उनके पास गए! हमने सुना था कि उनका घर काफी बड़ा है मगर वहां जाकर देखा तो पता चला कि वो घर नहीं बल्कि एक बंगला है! खैर जैसे-तैसे हम बंगले के भीतर पहुँचे और उनके नौकर को हमारा यानी कि मेरे और मेरे मित्र, दोनों का परिचय और आने का प्रयोजन दोनों बताया! नौकर मानो कोई मोटर-चलित यन्त्र-मानव की तरह भाव-हीन तरीके से भीतर गया और साहब को हमारे आने का प्रयोजन बताकर पुनः हमारे सामने भाव-हीन तरीके से विस्थापित हो गया! उसने उसी भाव-हीन तरीके से हमें भीतर चलने का इशारा किया और हम भी उसके पीछे चल पड़े! पीछे चलते हुए मेरा ध्यान उसके कानों की तरफ गया जहाँ कानों की जगह सिर्फ सुराख़ थे! ख़ैर सुराख़ों को नज़रअंदाज़ करके जब हम अंदर पहुंचे तो देखा सामने साहब सोफ़े पर विराजमान हैं और उनके समीप ही उनके "स्पीकर" के आकार के दो कान दो अलग़-अलग़ सोफ़े पे विस्थापित किये गए थे! उन कानों के अगल-बगल में दो गूढ़ पुरुष भी विराजमान थे! ज़रा ज्ञान और विज्ञान का इस्तेमाल करके पता चला कि वो विशाल कर्ण मानव त्वचा और माँस के नहीं अपितु साधारण मृदा से बने हुए थे!
ख़ैर जैसे ही हमनें साहब का अभिवादन किया कि उनकी पावन दृष्टि अपने दो गूढ़ पुरुषों में से दाहिने ओर बैठे पुरुष (जिसे हम इसके बाद से दीपू के नाम से जानेंगे) की ओर मोड़ी! दीपू ने भी दाहिने कर्ण के पास जाकर कहा, "हे स्वामी! ये पुरुष आपका अभिवादन कर रहे हैं जिसका मतलब ये है कि जब ये आपके समीप या सामने होंगे तभी ये आपकी इज़्ज़त करेंगे वरना नहीं करेंगे!" दीपू की ये बात सुनकर साहब की त्यौरियां चढ़ गयीं और हम दोनों थोड़ा अचकचा गए, फिर भी हिम्मत करके मैनें कहा, "हे देव! आप सर्वथा आदर योग्य हैं, हमारी क्या बिसात कि हम आपके अनादर की सोचें! आप तो एक महापुरुष हैं!" मेरे इतना कहते ही बायीं तरफ़ बैठा गूढ़ पुरुष (जिसे हम इसके पश्चात बापू से जानेंगे) बोला,"हे स्वामी! आप इस अकिंचन की बात तो आप एक देव-पुरुष हैं परंतु ये आपको एक महापुरुष ही बता रहा है! पाप है ये! घोर पाप है ये!" बापू की बात सुनकर साहब की त्यौरियों का कोण दो डिग्री और ऊपर हो गया था! मुझे पता था कि प्राचीनकाल से ही देव-पुरुषों और राजपुरुषों को सिर्फ प्रशंसा नाम के अस्त्र से हराया जा सकता है! मैनें भी सामने के सोफ़े को एक देव-सिँहासन समझा और सामने बैठे व्यक्ति विस्थापित देव समझ, उनका वंदन यूँ चालू किया, "हे देव! आप तो सर्वथा धन्य थे, हैं और रहेंगे! अगर मॉर्डन काल में देवताओं की परेड़ हो तो आप ही उस परेड़ के नायक बनकर उभरेंगे! अगर स्वर्ग में कोई टैलेंट शॉ होगा तो आप ही उसके निर्विवादित विजेता बनेंगे! आप क्रोध में देवताओं के एटॉम बम हैं बस एक बार आपको "ट्रिगर" ही करना होगा! दया और दान में तो आप इतने महान हैं कि प्राचीनकाल में महादानी कर्ण ने आप से ही "ट्यूशन" ली थी! इतना कहकर मैं चुप हो गया और बड़ी कुटिल दृष्टि से दीपू और बापू की तरफ़ देखा जो अब बगलें झाँक रहे थे!
उधर साहब की तनी हुई भृकुटियाँ उसी तरह से धरातल पर आ गयीं जिस तरह से चढ़ता हुआ शेयर-बाज़ार अचानक ही रसातल पर पहुँच जाता है! साहब ने अपने उसी भाव-हीन नौकर को अपने समीप बुलाया और नौकर के कान में कुछ फुसफुसाया! थोड़ी ही देर में साहब के हाथ में चेक-बुक थी और उन्होंने कुछ लिखकर चेक हमारे हाथ में पकड़ा दिया! उस भाव-हीन पुरुष के पीछे चलते हुए मैं सोचने में लगा हुआ था, "माटी जो हर चीज़ को आत्मसात करती है, निर्मल जल से लेकर मलिन मल तक! परंतु यहाँ पर मिट्टी के कच्चे कान सिर्फ़ कीचड़ को ही आत्मसात कर रहे हैं और इसी कीचड़ के कारण उन कानों में मैल जमा होता जा रहा है! अंदर सिँहासनरत पुरुष से अच्छा तो ये भावहीन पुरुष ही है जो इन दो सुराख़ों के साथ जी रहा है, क्योंकि यहाँ बात एक सुराख़ से जाकर दूसरे सुराख़ से निकल जाती है परंतु चेहरे पर केवल भावशून्यता रहती है! मेरा मित्र चेक और उसकी राशि से ख़ुश था मग़र मैं विचारमग्न था!

 
 
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