हर बार मैं सोचूं ये घाव पुराना भर गया होगा,मगर जब भी याद आया तू, तो हर वो ज़ख्म हरा हो गया...
इन रिसते ज़ख्मों को वक़्त कभी सील न सका, नासूर बानी यादें तेरी, इनको उधेड़ता ही चला गया...
छोटी सी इस ज़िन्दगी से कुछ वक़्त हमने चुरा लिया, परवाह तुझे ही कब थी , जो वक़्त को बेपरवाह करार दिया...
सही या ग़लत तो हम थे, क्यों वक़्त का तकाज़ा कह दिया...
मिलना ही अगर इत्तेफाक था तो दूरियों को क्यों नसीब कह दिया...