हिंदू शिकार है इस्लामी आतंक का, मुसलमान शिकार है हिंदू राष्ट्रवाद का।
उच्चवर्ग शिकार है बढ़ाते आरक्षण का, पिछड़ावर्ग शिकार है घटते आरक्षण का।
स्त्री शिकार है पितृसत्ता का, पुरुष शिकार है नारीवाद का।
मालिक शिकार है ख़राब कार्य कुशलता का, मजदूर शिकार है शोषण का।
डॉक्टर शिकार है मरीज़ों की बढ़ती आक्रामकता का, मरीज़ शिकार है अस्पतालों से होती हुई लूट का।
प्रशासन शिकार है नारेबाजी का, समाज शिकार है लाठीबाज़ी का।
वकील शिकार है पुलिस की तानाशाही का, पुलिस शिकार है वकीलों की गुंडागर्दी का।
छात्र शिकार है अनुशासन का, शिक्षक शिकार है अनुशासनहीनता का।
कलाकार शिकार है अभिवेचन का, नियामक शिकार है अभिव्यक्ति का।
शहरी शिकार है गिरते पेड़ो का, ग्रामीण शिकार है गिरते विकास का।
यह तो बस चंद उदाहरण है, गिनने बैठोगे तो ख़तम नहीं होंगे शिकार होने के कारण।
एक बात ठीक से समज़ह लो प्यारे, समाज व्यवस्था का, इंसान का, संप्रदाय का, सामूहिक राय का या किसीभी चीज़ का शिकार होना, या यूँ कहे ये "सोचना" की हम शिकार है, ये केवल एक मानसिकता है।
आप तब भी शिकार थे जब वो सरकार थी, आप आजभी शिकार है जब ये सरकार है, और अगर आप अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तो आप आजीवन शिकार ही रहेंगे।
समस्या, कठिनता, चुनौतियाँ हर एक के जीवन मैं है, मैं मानता हूँ की कुछ लोगों के जीवन में थोड़ी ज्यादा है, किसी के जीवन में कुछ कम, पर ऐसा मानव नहीं जन्मा जिसने कभी पीड़ा सेहेन नहीं की हो।
सवाल ये है की आप कौन है? क्या आप किसी न किसी पीड़ा को सदैव दोष देते है और अपने आप को शिकार समझते है? या आप वो है जो इन पीड़ाओं के बावजूद अपना प्रपंच निरंतर चलाते है? अगर आप सशक्त है, सक्षम है चुनौतियों से जूंझने के लिए, तो आप हीरो है। फिर आप बैंक कर्मचारी है, या मजदूर, या सिपाही, या अफसर, या डॉक्टर है, या कोई और , इससे फरक नहीं पड़ता, नहीं आपकी ज़ात से और नहीं धरम से।
अपने आप से पूछो, कौन है आप?