ज़िंदगी का लेखा जोखा......
ज़िदगी की डगर पर चलते चलते
यूं ही एक दिन अचानक पीछे मुड़ कर देखा
मन बोला – मुड़ कर मत देख......
दिल बोला – मैंने तेरा बहुत साथ दिया,
आगे बढ़ने से पहले, एक बार
ज़िंदगी का लेखा जोखा तो देख
मैंने पूछा .........
उस बहीखाते में मुझे क्या मिला .....
दुख..दर्द...ज़ख्म...बेबसी....
एक कांटों भरी ..... उलझी सी ज़िंदगी
तभी मन ने हाथ थामकर कहा .....
अब सोच मत... तूने कभी मेरी एक न सुनी.......
अब तो आज़मा कर देख.... दिल ने तुझे डर दिया,
उस बेबसी की राह में हौसला तुझे मैंने ही दिया।
तेरे मज़बूत इरादों का सबब मैं ही बना।
...........
तो रुक कर मैंने एक पल सोचा.....
क्यों न मन के पंख लगा कर,
परिंदों की मानिंद उड़ चलें.....
एक अनजान सफ़र पर...
कारवां ख़ुद ब ख़ुद बनता जाएगा।